गोंदिया. इस साल का विधानसभा चुनाव स्थानीय स्वशासन चुनावों के आधार पर ही आयोजित किया गया था. ‘वोट के बदले नोट’ का फॉर्मूला व्यापक रूप से अपनाया गया. इतना ही नहीं चर्चा तो यह भी है कि ‘जीत के बाद नोट’ यह फंडा भी इस्तेमाल किया गया है. क्या ये ‘वोट के बदले नोट’ और ‘नोट के बदले जीत’ वाली रणनीति जीत का समीकरण बिगाड़ देगी? ऐसी तीखी चर्चा शुरू हो गई है.
जिले के चार निर्वाचन क्षेत्रों के लिए 20 नवंबर को मतदान प्रक्रिया आयोजित की गई थी. चुनाव की तैयारियां पिछले 20 दिनों से शुरू हो गई हैं. प्रचार के दौरान सभी प्रत्याशियों ने अपनी ताकत झोंक दी. प्रचार रैलियों और सभाओं के जरिए शक्ति प्रदर्शन भी किया गया. शक्ति प्रदर्शन के लिए आवश्यक संख्या में पुरुषों और महिलाओं को इकट्ठा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई. न सिर्फ संघ के वोटर बल्कि आसपास के जिलों के विधानसभा क्षेत्रों से आए लोगों को भी लाकर भीड़ दिखाई गई. इतना ही नहीं, मतदान के दिन तक मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए ‘वोट के बदले नोट’ और ‘जीत के बाद नोट’ दोनों फॉर्मूलों के माध्यम से भारी मात्रा में धन का विपणन किया गया. विधानसभा चुनाव का शंखनाद करने के लिए चारों विधानसभा क्षेत्रों के प्रत्याशी व समर्थक धन की बाढ़ लेकर आए थे. जब यह महसूस हुआ कि ‘वोट के बदले नोट’ से प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार पर बढ़त नहीं मिल पा रही है तो ‘जीत के बाद नोट’ का फॉर्मूला इस्तेमाल किया गया. इस वजह से मतदाता किसे सोचते हैं? इसका हिसाब लगाना मुश्किल हो गया है. क्या ‘वोट के बदले नोट’ और ‘जी के बाद नोट’ दोनों फॉर्मूले जीत का समीकरण बिगाड़ देंगे? इस बात पर गौर किया गया है. इसलिए यह चुनाव विधानसभा के इतिहास में अविस्मरणीय बन गया है. अगर आगामी चुनाव इसी तर्ज पर लड़े जाएंगे तो लोकतंत्र कैसे बचेगा? ऐसा सवाल समझदार नागरिकों द्वारा किया जा रहा हैं.
भरारी दस्तों की भूमिका पर सवालिया निशान
चुनाव को पारदर्शी बनाने के उद्देश्य से चुनाव आयोग के दिशा निर्देशानुसार जिले में भरारी दस्तों का गठन किया गया था. जिला निर्वाचन प्रणाली ने इस बात पर भी नजर रखने का वादा किया कि कहीं भी पैसों का लेन-देन न हो. लेकिन जिले के चारों विधानसभा क्षेत्रों में दिन-रात पैसों का बाजार लगा रहा. लेकिन, जिले में किसी भी व्यक्ति पर पैसे बांटने का आरोप नहीं लगा. जिससे निर्वाचन विभाग की भरारी दस्तों की भूमिका पर सवालिया निशान खड़ा हो गया है. ऐसी चर्चा जोरों पर है कि चुनाव प्रणाली ने भी चुनाव के दौरान सच दिखाने के लिए कान और आंख पर हाथ रखकर अपनी भूमिका सफलतापूर्वक निभाई है.